कृष्ण
महाभारत युद्ध की बिसात बिछ चुकी है। सेनाएं आमने-सामने हैं। दोनों सेनाओं का सबसे बड़ा आकर्षण है गुरु द्रोण का सर्वश्रेष्ठ शिष्य अर्जुन, जिसने अभी कुछ दिनों पहले ही राजा विराट के युद्ध में इसी कौरव सेना को धूल चटाई थी। अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र समेत संहार के सबसे ज्यादा सिद्ध-अस्त्र हैं।
अचानक उस अर्जुन को अपने ही परिजनों पर शस्त्र न उठा पाने का मोह प्याप्त हो जाता है वह योद्धा जिसने इस युद्ध के लिए न जाने कबसे प्रतीक्षा की है, न जाने किस-किस विधि से कैसे-कैसे अस्त्र-शस्त्र अर्जित किये हैं। उसके हाथ से धनुष छूट गया है। अपने-अपने अस्त्र शस्त्रों पर ताव खाये इन सब योद्धाओं में सबसे ज्यादा शस्त्र-सक्षम व्यक्ति इतना मानवीय हो उठता है कि उसके भीतर का मनुष्य उसके योद्धा पर भारी पड़ जाता है।
महाभारत जो कि व्यक्तिगत श्रेष्ठता सिद्ध करने का सबसे बड़ा मंच है इस मंच पर आकर इस व्यक्ति को अचानक मछली की आंख के बजाय पूरी दुनिया दिखाई देने लगी है। साध्य के बजाय साधन दिखने लगता है? कैसा सुंदर विरोधाभास है; कितना अद्भुत है कि प्रकृति ने संहार के सबसे भयावह साधन सबसे विनम्र हाथों में सौंपे हैं!
अब अर्जुन को इस मोह से बाहर निकालना था, युद्ध के लिए तत्पर करना था, इस मोह को छोड़ देने को कहना था, इस मोह से मुक्त होने को कहना था और अर्जुन के रथ पर बैठा था वह व्यक्ति जिसका पूरा जीवन सिर्फ मुक्त होने का और छोड़ने का इतिहास था। राधा जैसी प्रेमिका, गोकुल जैसा घर जिसने एक झटके में छोड़ दिया। जो एक बार नंदगांव से मुक्त हुआ तो न दुबारा यमुना तीरे गया न उस गोवर्धन-पर्वत जिसे उंगली पर उठाकर वह देवताओं के राजा के भीड़ गया था और तो और युद्धनीति से बिल्कुल उलट बल्कि युद्ध की मर्यादा से पतित आचरण करते हुए 'कालयवन' के सामने युद्ध का मैदान छोड़कर भागा और उसे 'रणछोड़' कहा गया। मुक्त होने और छोड़ देने के बारे इस व्यक्ति से ज्यादा अनुभव पूरे सप्त-सिंधु में उन दिनों किसी को नहीं था। यह पाण्डवों का सौभाग्य ही था की कृष्ण उस समय अर्जुन के रथ पर थे।
क्या आपको ऐसा नहीं लगता जैसी इसी एक बड़ी भूमिका के लिए प्रकृति ने पूरे जीवन कृष्ण से अभ्यास करवाया था मोह से मुक्त होने का? यह प्रकृति की कितनी अनूठी व्यवस्था है की वह उपयुक्त भूमिका के लिए नायकों को धीरे-धीरे गढ़ती रहती है चुनती रहती है।
गीता किसी ईश्वरीय अवतार का संचित थोथा-दर्शन भर नहीं है बल्कि वह कृष्ण के जीवनभर के अनुभवों से अर्जित ज्ञान है। 'आत्मा न पैदा होती है न मरती है।" यह पवित्र वक्तव्य क्या किसी को युद्ध के लिए भड़काने के लिए रचा गया होगा बिल्कुल नहीं यह आक्रमकता से उपजा वाक्य है ही नहीं। यह प्रेम की हद से उपजा वाक्य है। क्या यह स्वाभाविक नहीं लगता की यह वाक्य कान्हा ने राधा से बिझोह के समय सोचा हो? "एक ही तो आत्मा है मुझमें और राधा में!"
कृष्ण ने प्रतिज्ञा भी तोड़ी, उन भीष्म के आगे जिन्होंने सारे जीवन अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। भीष्म की उस प्रतिज्ञा का 'आर्यावर्त' ने बड़ा खामियाजा भुगता जो धृतराष्ट्र जैसे अयोग्य को सत्ता मिल गयी। क्या कृष्ण भीष्म के आगे प्रतिज्ञा तोड़कर भीष्म को यह नहीं समझा रहे थे की 'सामाजिक-हित' के आगे 'व्यक्तिगत-हठ' की बलि देना ही धर्म है।
कृष्ण की सबसे बड़ी बात है कि वे 'कृष्ण' होने के भाव से भी मुक्त हैं कहते हैं न सेल्फलेस। वरना कौन होगा जो इमेज की परवाह न करते हुए युद्ध के मैदान से भाग खड़ा होगा, कौन होगा जो युद्धिष्ठिर के यज्ञ में जूठन उठाने का काम अपने जिम्मे लेगा। कौन होगा जो गर्दन काटने के लिए सौ गाली पूरी होने की राह देखेगा, कौन होगा जो स्वयं योद्धा होते हुए भी सारथी की भूमिका में सहज हो पायेगा। कृष्ण स्वयं अकृष्ण भी हैं और विकृष्ण भी कई बार तो प्रतिकृष्ण भी।
कृष्ण के पूर्ववर्ती महापुरुषों हरिश्चंद्र और राम ने सत्य और मर्यादा की स्थापना की थी किंतु जैसा की होता ही है समय के साथ हर अच्छाई दूषित होती चली जाती है और उसे परिसंस्कार की आवश्यकता होती है। कृष्ण ने 'सत्य' और 'अहिंसा' के इन दोनों सत्वों में 'विवेक' नाम का तत्व मिलाकर 'नीति' की सृष्टि की। जो बाद के भारत को कृष्ण की सबसे बड़ी देन है।
-रचित